क्या आरक्षण से बनेगा आत्मनिर्भर भारत?


जाती को योग्यता का आधार बना दिया गया। आरक्षण के भागमभाग में योग्यता की परिभाषा बदल दी गई। बार-बार बात होती हैं कि हमारा देश विकसित नहीं हैं,हमें ये बात समझनी होगी किसी भी देश को आगे बढ़ने के लिए आरक्षण की नहीं काबिलियत की जरूरत होती हैं. क्या आरक्षण से बनेगा आत्मनिर्भर भारत?

धीरे-धीरे भारत में ऐसी स्थिति बन गई कि जाति के आधार पर आरक्षण मांगना एक फैशन बन गया और नेता के लिए वोट हासिल करने का अचूक फॉर्मूला बन गया है. आपको याद होगा कि किस तरह से पिछले कई वर्षों में जाति के आधार पर आरक्षण के लिए देश के अलग-अलग राज्यों में कई हिंसक प्रदर्शन हुए. लेकिन क्या आपको कभी ऐसा प्रदर्शन याद है जिसमें ये कहा गया हो कि इस देश में आरक्षण की नहीं योग्यता की बात की जानी चाहिए. क्या कभी ऐसा प्रदर्शन आपने देखा है जिसमें ये कहा गया हो कि देश में जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर आरक्षण हो. यानी अगर कोई अधिकार दिया जाना है तो वो अधिकार सबसे पहले देश के जरूरतमंद गरीब को मिले फिर चाहे वो गरीब किसी भी जाति का हो.

देश में वर्तमान आरक्षण

देश में इस वक़्त केंद्रीय स्तर पर 59.50 ℅ आरक्षण बांटा जाता हैं और एक अनुमान के मुताबिक देश की 70 से 75 प्रतिशत आबादी आरक्षण के दायरे में आती हैं जिसमें वो लोग भी शामिल हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं पर आरक्षण का लाभ तब भी लेते हैं।

आरक्षण का इतिहास 

26 जनवरी 1950 को डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान में 10 वर्षों के लिए लागू किया, लेकिन वो मानते थे आरक्षण सदा के लिए नहीं हो सकता। 26 जनवरी 1950 को  जब देश में संविधान लागू हुआ तो ये कहा गया था कि सरकार हर 10 वर्ष पर ये समीक्षा करेगी की आरक्षण की जरूरत हैं या नहीं। लेकिन एक बार जो आरक्षण लागू हुआ तो फ़िर कभी इसकी समीक्षा नहीं की गई बल्कि इसे साल दर साल बढ़ाया गया । नई-नई जातियों को इसमें शामिल किया गया.
1989 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग यानी OBC को 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया. इसके बाद ऐसी स्थिति आ गई है कि सुप्रीम कोर्ट को एक बड़ा फैसला देना पड़ा कि आरक्षण किसी भी सूरत में 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए और जो आरक्षण समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करेगा, उसे लागू नहीं किया जा सकता है. लेकिन कई राज्यों ने अपने अपने यहां आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से भी अधिक कर दिया. जैसे तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण है।

बढ़ता हुआ आरक्षण मौलिक अधिकारों का हनन करता हैं. एक सामान्य वर्ग का अच्छा पर गरीब छात्र देश के अच्छे संस्थानों में ऐडमिशन नही ले पाता हैं वही एक SC/ST वर्ग का कमज़ोर पर अमीर छात्र देश के बड़े संस्थानों में मुफ्त में पढ़ता हैं. ये मौलिक अधिकारों का हनन नहीं तो और क्या हैं। ऐसी व्यवस्थाओं के साथ आत्मनिर्भर भारत का सपना पूरा होना मुमकिन नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा था कि आरक्षण किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं हैं, और साथ ही ये भी कहा थी कि सारी राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे पे एक हो गई हैं। कारण ये भी हैं कि देश की 70-75% लोग आरक्षण से जुड़ गए है और एक राजनीतिक पार्टी के जीत और हार का फ़ैसला इससे हो सकता हैं।

मगर जब बात देशहित की हो तो अपना फायदा देखना उतना ही गलत हैं जितना सहीद की सहादत पे सवाल उठाना सरकार को इसका विकल्प ढूंढना चाहिए और अगर आरक्षण देना ही है तो आर्थिक आधार पर दिया जाना चाहिए और जाति अथवा धर्म मे आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए. लेकिन आर्थिक तौर पर आरक्षण भी इसी भाव से देना चाहिए कि आगे चलकर इसकी जरूरत कम से कम लोगों को हो। और लोग पहले ख़ुद आत्मनिर्भर बने न की आरक्षण निर्भर तभी देश आत्मनिर्भर होगा
बाकी जनता बेहतर जानती हैं ।

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